कलयुग की चाल में जब हर व्यक्ति बेहतर जिंदगी की तलाश में है, तब कुछ रास्ते डरावने भी बन जाते हैं न केवल भौतिक खतरों से भरे, बल्कि सांस्कृतिक, मानसिक और सामाजिक खतरों से भी। ‘डंकी रूट ‘यह शब्द सुनने में मासूम लगता है, पर वास्तव में यह उन छिपे हुए मार्गों का प्रतीक बन चुका है जहाँ से हमारे देश के युवा अपने सपने ले जाते हैं और बदले में कुछ नहीं पाते सिवाय सूनी आशाओं और ठगा हुआ अस्तित्व के। यह लेख उसी कड़वे सच की ओर इशारा है: कैसे युवा, उनकी आकांक्षाएँ और उनकी मेहनत कुछ मुनाफाखोर तस्करों के हाथों में फँसकर धुँधली हो जाती है।
युवा आज बेरोज़गारी, शिक्षा की अनिश्चितता, सामाजिक दबाव और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच फँसे हुए हैं। पढ़ाई पूरी करके भी वह वह नौकरी नहीं पाते जिसका वादा हुआ था, विदेश जाने के लिए वीज़ा और नौकरी के सपने बेचने वाले एजेंट हावी हो जाते हैं, और असलियत में एक लंबा कारवाँ शुरू हो जाता है कागज़ों की जटिलता, रिश्वत, झूठे वादे और कानून की परछाइयों के बिन बुलाए मेहमान। डंकी रूट की पहचान सि$र्फ भौगोलिक नहीं, यह एक मानसिक और संस्थागत संकट का नाम भी है जहाँ सिस्टम की कमज़ोरी और सामाजिक अपेक्षाओं के फंदे मिलकर युवा पीढ़ी की निजता और भविष्य को लूटते हैं। सबसे पहले, हमें यह समझना होगा कि यह तस्करी किस रूप में हो रही है। यह हमेशा शारीरिक मानव तस्करी के रूप में नहीं दिखती; अक्सर यह भावनात्मक और आर्थिक शोषण का रूप ले लेती है। उदाहरण के लिए विदेश जाने के नाम पर वादा किया गया रोजगार, पर पहुँच कर युवा को अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों, कम वेतन और अत्याचार का सामना करना पड़ता है; उच्च शिक्षा के नाम पर ठगीजहाँ महंगी फीस और उज्जवल भविष्य के वादे के बाद छात्र कर्ज के बोझ तले दब जाता है; या फिर ठेके पर तैयार की गई नौकरी के न$कली प्रमाणपत्र, जिनके बदले में परिवार की बचत गायब हो जाती है। इन सबके बीच ‘डंकी रूट’ का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह हमारी नैतिकता और संस्थाओं की विश्वसनीयता को धीमे, परन्तु अटल तरीके से खोखला करता है।
दूसरी बात हमारे समाज और आर्थिक व्यवस्थाएँ इस तस्करी के अनुकूल माहौल तैयार करती हैं। जब स्थानीय अर्थव्यवस्था युवा वर्ग की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाती, तो युवक-युवतियाँ नयी संभावनाओं की तलाश में अनोखे रास्ते अपनाते हैं। मीडिया और सोशल प्लेट$फॉर्म अक्सर विदेशी सफलता की गाथाएँ चमक-दमक के साथ दिखाते हैं; वही चमक कुछ एजेंटों और दलालों को बहु-करोड़ के कारोबार का अवसर दे देती है। परिणाम यह होता है कि सपनों की कारीगरियाँजिन्हें युवा सालों की मेहनत और जोखिम उठाकर बनाते हैं वो उसी मेहनत को बेचकर और गुमनाम कर देते हैं।
तीसरी और सबसे दर्दनाक कहानी तो परिवारों की है। एक गांव या छोटे शहर का परिवार, जब अपना एक बेटा या बेटी बड़े सपने लेकर निकलता है, तो उस आशा के साथ चलता है कि आने वाले वर्षों में उसके परिवार की त$कदीर बदल जाएगी। पर जब वह युवा ठगे जाने का अनुमान लगाकर ही लौटता है, तो परिवार का जीवन-दौर भी धराशायी हो जाता है आर्थिक संकट, सामाजिक शर्म, और एक टूटे हुए भरोसे का भार। परिवारों की यह हानि न केवल वित्तीय होती है बल्कि उससे जुड़ी भावनात्मक लागत भी उतनी ही भारी होती है।
हमारे देश के $कानूनी तंत्र और सामाजिक सुरक्षा नेट इस समस्या का पूरा समाधान नहीं दे पाते। बहुत से मामलों में पीडि़तों के पास शिकायत करने का रास्ता होता है, पर वह राह लंबी, जटिल और भयभीत कर देने वाली होती है। कई बार शिकायत करने पर भी प्रभावी कार्रवाई नहीं होती, या पीडि़त पर ही अपराध ठहराया जाता है खासकर जब कागजी व्यवस्था की कमी होती है। दूसरी तर$फ, दलाल और एजेंट स्थानीय अदालतों, अधिकारियों और जटिल नेटवर्क का उपयोग करके खुद को सुरक्षित कर लेते हैं। इस तरह का व्यवस्थित अंधेरा हमारे युवा वर्ग की संभावना को अंधकार में खींच लेता है।
एक और महत्वपूर्ण आयाम है मानसिक स्वास्थ्य। युवा पीढ़ी को न सि$र्फ आर्थिक बल्कि गहरे मानसिक आघात का सामना करना पड़ता है। सपनों के टूटने के बाद निराशा, शर्मिंदगी और आत्म-आलोचना की लहर पनपती है। वहीँ, सामाजिक अपेक्षाओं की भारी चादर से दबकर कई युवा उपेक्षा और अवसाद की ओर बढ़ जाते हैं। यह एक चुपचाप फैलने वाला रोग है जिसका इलाज तभी संभव है, जब हम इसके कारणों को स्वीकारें और सामूहिक समाधान ढूँढें।
तो समाधान कहाँ है? सबसे पहले जातीय, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वास्तविक रोजगार के अवसर पैदा करना आवश्यक है। शिक्षा-नीति में केवल डिग्री देने के बजाय कौशल-आधारित प्रशिक्षण और उद्योग के अनुरूप पाठ्यक्रम लागू करने होंगे। इससे युवा पास होकर बेरोज़गार नहीं होंगे और घरेलू बाज़ार में उनके लिए वैध विकल्प मौजूद होंगे। साथ ही, सरकारी योजनाएँ और बैंकिंग प्रणालियाँ ऐसी होनी चाहिए, जो युवा उद्यमिता को सस्ते क्रेडिट और आसान प्रक्रियाओं के माध्यम से बढ़ावा दें।
दूसरा- सूचना और जागरूकता। गाँवों और छोटे शहरों में उस तरह की जागरूकता मुहैया कराना जरूरी है, जिससे लोग विदेश जाने या किसी एजेंट के साथ समझौता करने से पहले सावधानी बरतें। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सामाजिक संस्थाएँ, स्कूल, कॉलेज और पंचायतें मिलकर एक सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं। सही जानकारी, सच्चे उदाहरण और जोखिमों की स्पष्ट तस्वीर देने मात्र से कई परिवारों की बचत की जा सकती है।
तीसरा- कानूनी और प्रशासनिक सुधार अनिवार्य हैं। तस्करी के खिला$फ शिकायती प्रक्रियाओं को सरल, तेज़ और संवेदनशील बनाना होगा। पीडि़तों के लिए हॉटलाइन, कानूनी सहायता और तत्काल पुनर्वास के उपाय होने चाहिए। साथ ही, एजेंटों और दलालों की पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए उनके पंजीकरण और ऑडिट की अनिवार्यता होनी चाहिए—जिससे कई बार ठगी रोकने में मदद मिलेगी।
चौथा- मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का सुदृढ़ीकरण। युवा जो लौटते हैं या जो इस तस्करी के चंगुल से निकले हैं, उन्हें भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सहारा चाहिए। यहाँ पर स्थानीय एनजीओ, सामाजिक कार्यकर्ता और सरकारी स्वास्थ्य केंद्र मिलकर मुफ्त या कम लागत में काउंसलिंग, रोजगार मार्गदर्शन और पुनर्वास कार्यक्रम चला सकते हैं। ऐसा न होना, पीडि़तों को बार-बार उसी जाल में फँसा देता है।
पाँचवाँ - समुदाय का योगदान। समाज को यह समझना होगा कि किसी का भी भविष्य निजी मुद्दा नहीं रह गया है। जब हम अपने पड़ोसी के युवा के ठगने की कहानी पर आँख मूँद लेते हैं, तो वह हमारी सामूहिक कमजोरी बन जाती है। इसलिए समुदायों को स्वैच्छिक निगरानी, सूचना साझा करने और संकट में पड़े परिवारों को समर्थन देने की जिम्मेदारी उठानी होगी। यह सि$र्फ दया का काम नहीं, बल्कि अपने समाज की संरचना को बचाने का कदम है। लेख में एक सवाल बार-बार उठता है क्या यह समस्या केवल गरीबों और कम पढ़े-लिखे क्षेत्रों तक सीमित है? ज़ाहिर नहीं। आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया ने छल-कपट की नई विधियों को जन्म दिया है। शहरी युवाओं को भी झूठे जॉब-ऑफर्स, स्टार्टअप निवेश के नाम पर ठगा जा सकता है।
इसलिए समाधान व्यापक और समेकित होना चाहिए, जो हर सामाजिक-आर्थिक तबके तक पहुँच सके।
अंतत:, डंकी रूट केवल एक मार्ग का नाम नहीं, यह हमारी पहचान का संवेदनशील हिस्सा है जहाँ से गुजरते हुए हमारे युवाओं को नष्ट होने से बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है। हमें अपने शिक्षा-नियमों, रोजगार नीतियों, सामाजिक संरचनाओं और कानूनी तंत्र में रचनात्मक परिवर्तन करना होगा। इन परिवर्तन का केंद्र युवा होने चाहिए, उनकी सुरक्षा, उनकी आशाएँ और उनकी क्षमता।
यदि हम चाहते हैं कि आने वाली पीढिय़ाँ ऊँचे सपने देखें और उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखें, तो हमें आज से व्यवस्था बदलनी होगी। युवक-युवतियों के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और समर्थन का ऐसा जाल बिछाना होगा कि कोई भी दलाल या तस्कर उसे चीरकर नहीं जा सके। तभी हम कह पाएँगे कि डंकी रूट से चलने वाली लूट अब रुक गई है और उसके स्थान पर एक ऐसा रास्ता खुला है जहाँ सपने बिकें नहीं बल्कि पाले और साकार किए जाएँ।
इस लेख का उद्देश्य किसी को दोषी ठहराना नहीं, बल्कि एक आईना दिखाना है जिसमें हम सब अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी देखें। बदलना कठिन होगा, पर असंभव नहीं। जब समाज, सरकार और परिवार मिलकर काम करेंगे, तब ही युवा अपने सपनों के साथ धोखे के बिना आगे बढ़ सकेंगे।
(लेखक: संदीप साहू - संपादक)
