सोशल मीडिया की गहराई में डूबता बचपन

SANDEEP SAHU
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बचपन कभी मिट्टी में खेलने, तितलियाँ पकड़ने और दोस्तों के साथ स्कूल से घर तक हँसी-ठिठोली करने का नाम था। लेकिन अब वही बचपन मोबाइल की स्क्रीन में सिमटता जा रहा है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और अब ‘रील्स’ व ‘शॉर्ट्स’ की दुनिया ने बच्चों को इस कदर घेर लिया है कि वास्तविक जीवन की खुशियाँ, भावनाएँ और रिश्ते धीरे-धीरे फीके पड़ने लगे हैं। सोशल मीडिया अब सिर्फ युवाओं का शौक नहीं रहा, बल्कि बच्चों की नई दुनिया बन चुका है — एक ऐसी दुनिया, जो चमकदार जरूर है, पर भीतर से बेहद खाली।


आज पाँच-छह साल के बच्चे तक मोबाइल और टैबलेट के आदि हो चुके हैं। अभिभावक भी सुविधा के लिए बच्चों को स्क्रीन थमा देते हैं, ताकि वे शांत रहें। यही ‘डिजिटल चुप्पी’ धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनती जा रही है। पढ़ाई से लेकर मनोरंजन तक हर चीज़ अब मोबाइल पर है, लेकिन इसके दुष्प्रभाव बच्चों की मानसिकता और सामाजिक व्यवहार पर गहराई से पड़ रहे हैं।


सोशल मीडिया की यह निर्भरता बच्चों को समय से पहले बड़ा बना रही है। वे ऐसे कंटेंट से रूबरू हो रहे हैं, जिनकी समझ या भावनात्मक परिपक्वता उनमें अभी नहीं है। ग्लैमर, ट्रेंड और ‘फॉलोअर्स’ की होड़ में वे अपनी असली पहचान खोते जा रहे हैं। इंस्टाग्राम या यूट्यूब पर फेमस होने की चाह ने बच्चों को प्रतिस्पर्धा के ऐसे दौर में ला खड़ा किया है, जहाँ ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ ही आत्मविश्वास का पैमाना बन गए हैं।


इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर साफ देखा जा सकता है। लगातार स्क्रीन देखने से ध्यान केंद्रित करने की क्षमता घट रही है, नींद की कमी, चिड़चिड़ापन और तनाव आम हो गए हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि अत्यधिक सोशल मीडिया इस्तेमाल से बच्चों में डिप्रेशन और अकेलेपन की भावना बढ़ रही है। वे वर्चुअल दुनिया में तो सक्रिय हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में संवादहीन होते जा रहे हैं।


स्कूलों में भी इसका प्रभाव दिखता है। बच्चे क्लास में ध्यान नहीं दे पाते, बातचीत में अभद्र भाषा का प्रयोग बढ़ा है और हिंसक गेम्स खेलने के कारण उनका व्यवहार आक्रामक होता जा रहा है। समाज में दिखने वाली असंवेदनशीलता का एक बड़ा कारण यही है कि बच्चों की भावनाएँ अब मोबाइल के इमोजी तक सीमित रह गई हैं।


माता-पिता के लिए यह स्थिति चिंता का विषय है। कई परिवारों में अब संवाद लगभग खत्म हो गया है — बच्चे फोन में व्यस्त, और माता-पिता अपने काम में। साझा भोजन, खेलकूद या आपसी बातचीत जैसी गतिविधियाँ गायब होती जा रही हैं। यही कारण है कि बचपन अब खुली हवा में नहीं, बल्कि चार इंच की स्क्रीन में सांस ले रहा है।


हालाँकि, यह कहना भी उचित नहीं होगा कि सोशल मीडिया पूरी तरह नकारात्मक है। यदि सही मार्गदर्शन और सीमित उपयोग के साथ इसका इस्तेमाल किया जाए, तो यह ज्ञान, रचनात्मकता और सीखने का बड़ा माध्यम बन सकता है। समस्या तब शुरू होती है जब नियंत्रण की जगह लत हावी हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि अभिभावक बच्चों के डिजिटल व्यवहार पर नज़र रखें, स्क्रीन टाइम तय करें और उन्हें वास्तविक गतिविधियों जैसे खेल, संगीत, कला या पढ़ने की ओर प्रोत्साहित करें।


स्कूलों को भी डिजिटल साक्षरता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए, ताकि बच्चे समझ सकें कि सोशल मीडिया एक साधन है, जीवन नहीं। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि बच्चों को केवल ‘स्मार्ट’ नहीं, बल्कि ‘संवेदनशील’ बनाना ही असली शिक्षा है।


**निष्कर्ष:**

सोशल मीडिया ने बचपन की मासूमियत को नई चुनौती दी है। यदि अब भी हमने सीमाएँ तय नहीं कीं, तो आने वाली पीढ़ी ‘रील्स’ की दुनिया में असल ज़िंदगी का अर्थ भूल जाएगी। जरूरत है कि परिवार, स्कूल और समाज मिलकर बच्चों को इस डिजिटल गहराई से बाहर निकालें, ताकि वे फिर से जी सकें वह असली, सजीव और रंगों से भरा बचपन, जो मुस्कुराने की जगह स्क्रीन पर नहीं, दिल में बसता है।


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