जल-जंगल-जमीन: हमारी प्रतिभा की अंतिम लड़ाई

SANDEEP SAHU
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Water-Forest-and-Land-The-Final-Battle-of-Our-Talents

जल, जंगल और जमीन ये तीन शब्द सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों का नाम भर नहीं हैं, बल्कि यह हमारी सभ्यता, संस्कृति, अस्तित्व और भविष्य की आधारशिला हैं। भारत जैसे विशाल और बहु-आयामी देश में इन तीनों के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह वह तिकड़ी है जो हमें न सिर्फ सांस देती है, बल्कि हमारी मिट्टी की गंध, हमारी नदियों का संगीत, हमारे पहाड़ों की छाया और हमारी कृषि की उर्वरा शक्ति को भी सुरक्षित रखती है। परंतु, जिस तेजी से आधुनिक विकास के नाम पर इन संसाधनों का दोहन हुआ है, वह आने वाली पीढिय़ों के लिए एक गहरी चेतावनी की तरह है। यह चेतावनी इसलिए भी अधिक तीव्र है क्योंकि आज दुनिया भर में जल संकट, जंगलों का क्षरण और भूमि का विनाश मानव जीवन पर सीधा प्रभाव डाल रहा है। इसीलिए कहा जा रहा है जल-जंगल-जमीन हमारी प्रतिभा, हमारी पहचान और हमारे अस्तित्व की अंतिम लड़ाई है।

यदि इतिहास की ओर देखेंगे तो पाएंगे कि सभ्यताएँ नदियों के किनारे बसीं, जंगलों के संरक्षण में फली-फूलीं और जमीन की उर्वरा शक्ति के कारण विकसित हुईं। गंगा, नर्मदा, यमुना, ब्रह्मपुत्र के आंचल में न सिर्फ कृषि संस्कृति बल्कि अध्यात्म और कला भी पनपी। हिमालय के जंगलों ने भारत को न सिर्फ पर्यावरणीय सुरक्षा दी बल्कि औषधियों, फलों, जल स्रोतों और जैव-विविधता का अनमोल भंडार भी सौंपा। जमीन ने हमें खेती करने का अवसर दिया, जिसने भारत को आत्मनिर्भर बनाया। मगर आधुनिकता की दौड़ में जहाँ लगातार औद्योगिकरण और नगरीकरण बढ़ा, वहाँ इंसान अपने मूल से कटने लगा और उसकी नज़र में प्राकृतिक संसाधन  ‘उपयोग’ की वस्तु बन गए। समस्या यहीं से शुरू होती है इंसान ने जल-जंगल-जमीन का संरक्षण नहीं, दोहन शुरू कर दिया।

आज भारत में जल संकट किसी दूर की भविष्यवाणी नहीं, बल्कि हर साल अनुभव की जाने वाली सच्चाई है। कई राज्यों में गर्मियों के महीनों में पीने का पानी ढूँढना चुनौती बन जाता है। जमीन के नीचे जल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। नदियाँ, जो कभी जीवन रेखा थीं, अब प्रदूषण का बोझ उठाए कराह रही हैं। यमुना का काला होता पानी, गंगा में मिलते कचरे और औद्योगिक रसायन, और शहरों के पास सूखती झीलें यह सब इस बात का प्रमाण है कि हम प्राकृतिक संसाधनों के साथ कैसा व्यहार कर रहे हैं। जल संकट के पीछे वर्षा चक्र में बदलाव, वनों की कटाई और भूमि उपयोग में परिवर्तन जैसी कई वजहें हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह है, मानव का अनियंत्रित लालच।

जंगल, जो धरती का फेफड़ा कहलाते हैं, आज सबसे अधिक खतरों में हैं। उत्तराखंड, हिमाचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, असम और पूर्वोत्तर के कई हिस्सों में वन कटान का सिलसिला जारी है। कभी सडक़ निर्माण के नाम पर, कभी खदानों के लिए, कभी औद्योगिक क्षेत्रों के विस्तार के लिए और कभी पर्यटन के दबाव में जंगल मिटाने की योजनाएँ बनती रहती हैं। इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदायों का जीवन इनसे गहराई से जुड़ा होता है। जंगल उनका घर हैं, उनकी संस्कृति का केंद्र हैं, और उनका आहार-विहार भी इन पर निर्भर करता है। परंतु विकास मॉडल ने उन्हें बाहर धकेला, उनकी जमीन छीनी और उनके अधिकारों को कमजोर किया। यही वह संघर्ष है जिसे वे आज  ‘जल-जंगल-जमीन की लड़ाई’ कहते हैं। देश के कई हिस्सों में आदिवासी और ग्रामीण समुदाय इन संसाधनों के संरक्षण के लिए अपने हक की आवाज उठाते हुए संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष सिर्फ जमीन की लड़ाई नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी की लड़ाई है। यह संघर्ष वह आवाज है जो कहती है, यदि जल-जंगल-जमीन बचेगा, तभी जीवन बचेगा। आज जिन समुदायों को ‘पीछड़ा’, ‘अनपढ़’ या ‘पिछड़ा वर्ग’ कहा जाता है, वही वास्तव में प्रकृति का सबसे वैज्ञानिक उपयोग करने वाले हैं। ये लोग जानते हैं कि जंगल का उपयोग कैसे करना है, जल को कैसे बचाना है, और जमीन को कैसे उपजाऊ रखना है। उनके पास ज्ञान है, जो किसी आधुनिक डिग्री से कम नहीं। यही वजह है कि कहा जाता है, वास्तविक प्रतिभा गाँवों, जंगलों और धरती के करीब रहने वाले लोगों के पास है। उनके जीवन के अनुभव ही असली पर्यावरणीय विज्ञान हैं। जब बात जमीन की आती है तो यह सिर्फ कृषि योग्य भूमि की चर्चा नहीं करती, बल्कि इसमें शामिल है भूमि अधिग्रहण, भूमि क्षरण, बंजर होते क्षेत्र, बढ़ते शहर और किसानों की बदहाली। आज बड़े उद्योगों को जमीन दी जाती है, पर किसान अपने खेत को बचाने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाता है। कभी सडक़ निर्माण के नाम पर, कभी किसी पावर प्रोजेक्ट के नाम पर, और कभी किसी स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन के बहाने किसानों की जमीन छीन ली जाती है। लेकिन बदले में उन्हें न न्याय मिलता है, न समुचित मुआवजा। एक किसान के लिए उसकी जमीन उसकी माँ की तरह होती है, लेकिन विकास नीति में इसे सिर्फ  ‘लैंड यूनिट’ की तरह देखा जाता है। यह सोच जितनी खतरनाक है, उतनी ही अमानवीय भी। जल-जंगल-जमीन का संकट केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकट भी है। जब पानी खत्म होता है तो हिंसा बढ़ती है, प्रवासन बढ़ता है, शहरों पर बोझ बढ़ता है। जब जंगल खत्म होते हैं तो जैव-विविधता टूटती है, जंगली जानवरों का गाँवों में आना बढ़ जाता है, जिससे मानव-वन्य संघर्ष बढ़ता है। जब जमीन बर्बाद होती है तो किसान कर्ज में डूबता है, आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ती हैं, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है। यह सब मिलकर देश की मूल संरचना को कमजोर करता है। असली सवाल यह है कि क्या इस लड़ाई को सिर्फ ग्रामीण और आदिवासी लोग लड़ेंगे? क्या शहरों को इससे कोई लेना देना नहीं? क्या सरकारें सिर्फ नीतियाँ बनाकर हाथ खड़ा कर सकती हैं? जवाब बिल्कुल स्पष्ट है, नहीं। यह लड़ाई हम सभी की है, शहरों में रहने वाले लोग भी इस संकट में उतने ही जिम्मेदार हैं जितने जंगलों में रहने वाले। शहरों के बढ़ते कचरे, पानी की बर्बादी, ऊर्जा खपत, निर्माण परियोजनाओं का विस्तार, सब मिलकर जल-जंगल-जमीन पर दबाव बढ़ाते हैं। इसलिए समाधान भी सभी को मिलकर ही तलाशना होगा। आज देश में नदी पुनर्जीवन योजनाएँ बन रही हैं, वर्षा जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा रहा है, वन संरक्षण कानून मजबूत किए गए हैं, और भूमि सुधार की बातें हो रही हैं। परंतु कई बार ये नीतियाँ जमीन पर लागू नहीं हो पातीं। कारण जिम्मेदारी की कमी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। योजनाएँ कागज पर बहुत सुंदर दिखती हैं, लेकिन धरातल पर उनमें खोखलापन नज़र आता है। जरूरत है ईमानदार प्रयासों की, विज्ञान और परंपरा के मेल की, और जन-भागीदारी की। समाधान कहीं बाहर नहीं, हम सबके भीतर है। हमें पानी बचाने की आदत डालनी होगी, वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना होगा, खेती के तरीकों में बदलाव लाना होगा, और जंगलों को सिर्फ लकड़ी का भंडार नहीं बल्कि जीवन का आधार मानना होगा। स्कूलों में, गाँवों में, मोहल्लों में, पंचायतों में, हर जगह पर्यावरण साक्षरता की ऐसी लहर पैदा करनी होगी जो आने वाली पीढ़ी को यह समझा सके कि धरती सीमित है, संसाधन सीमित हैं और लालच असीमित हैइस असंतुलन को रोकना ही मानवता की जीत है। जल-जंगल-जमीन की लड़ाई वास्तव में हमारी अपनी प्रतिभा की लड़ाई है। यह वह प्रतिभा है जो हमारी संस्कृति, परंपरा और वैज्ञानिक सोच में छिपी है। यह वह प्रतिभा है जिसमें किसान को पता है कि कब बीज बोना है, कब कटाई करनी है, किस दिशा में पेड़ लगाना है, किस प्रकार नहर बनानी है। यह वह प्रतिभा है जिसमें आदिवासी समुदाय प्रकृति का सम्मान करते हुए जीना जानते हैं।

यह वह प्रतिभा है जिसमें ग्रामीण महिलाएँ जल को बचाने की कला जानती हैं। यह वह प्रतिभा है जिसमें भारत की मिट्टी की खुशबू बसती है। अंत में यही कहा जा सकता है कि यह सिर्फ पर्यावरण की लड़ाई नहीं, बल्कि हमारी अस्मिता की लड़ाई है। यह लड़ाई इसलिए अंतिम है क्योंकि यदि यह हार गए तो आने वाली पीढ़ी को न पानी मिलेगा, न जमीन और न जंगल। तब न संस्कृति बचेगी, न सभ्यता, न विज्ञान, न अर्थव्यवस्था। इसलिए हमें अभी जागना होगा, अभी लडऩा होगा, अभी बदलना होगा। जल-जंगल-जमीन को बचाना सिर्फ सरकार का काम नहीं, यह हर नागरिक की जिम्मेदारी है। यह राष्ट्र की आत्मा को बचाने की लड़ाई है, और यह लड़ाई जीतना ही हमारा कर्तव्य है।


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