भारत में नक्सलवाद कभी एक विचारधारा था — अन्याय और शोषण के खिलाफ उठी आवाज़। लेकिन समय के साथ यह आंदोलन हिंसा, खूनखराबे और भय का प्रतीक बन गया। आज सरकारें यह दावा करती हैं कि देश नक्सलवाद से लगभग मुक्त हो चुका है, लेकिन क्या वास्तव में इसका अंत हो गया है?
सच यह है कि नक्सलवाद की जड़ें केवल जंगलों में नहीं, बल्कि समाज के भीतर की असमानता में हैं। जब तक किसी वर्ग को लगता रहेगा कि उसका हक छीना जा रहा है, तब तक विद्रोह के बीज अंकुरित होते रहेंगे। बीते वर्षों में सुरक्षा बलों ने नक्सल प्रभावित इलाकों में उल्लेखनीय सफलता पाई है, कई बड़े गुटों का सफाया हुआ है, और कई राज्यों में नक्सली प्रभाव सिमट गया है। सरकार की “संपूर्ण विकास” नीति और सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी योजनाओं ने भी नक्सलवाद को कमजोर किया है।
फिर भी, यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि नक्सलवाद का अंत हो गया है। झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में आज भी sporadic हमले होते हैं, जो बताते हैं कि यह समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। नक्सलवाद सिर्फ बंदूक की लड़ाई नहीं, बल्कि विचारों की भी जंग है। जब तक हम विकास को केवल शहरों तक सीमित रखेंगे और आदिवासी इलाकों के लोगों को न्याय व सम्मान नहीं देंगे, तब तक यह आग सुलगती रहेगी।
इसलिए ज़रूरत है कि सरकार सुरक्षा अभियानों के साथ-साथ सामाजिक न्याय और संवाद को भी प्राथमिकता दे। शिक्षा, रोज़गार, और स्थानीय भागीदारी को बढ़ावा देकर ही नक्सलवाद की विचारधारा को जड़ से खत्म किया जा सकता है।
नक्सलवाद अब अपने कमजोर दौर में जरूर है, लेकिन उसका अंत तभी होगा जब बंदूक नहीं, विश्वास की भाषा बोलेगी। असली जीत तब होगी जब जंगलों में खामोशी नहीं, विकास की गूंज सुनाई देगी।
निष्कर्ष
नक्सलवाद का अंत केवल हथियारों से नहीं, बल्कि समान अवसर और न्याय से संभव है। जब देश का हर नागरिक खुद को व्यवस्था का हिस्सा महसूस करेगा, तभी यह अध्याय सचमुच समाप्त कहा जा सकेगा।
