मॉस्को की ठंडी सड़कों पर कभी एक आवारा कुतिया भटकती थी — भूख, सर्दी और अनजान दुनिया के बीच जीने की कोशिश करती हुई। उस कुतिया का नाम था ‘लाइका’। आज उसका नाम इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है, क्योंकि यही वह जीव थी जिसने इंसान के सपनों को अंतरिक्ष तक पहुँचाने का पहला कदम बनाया। लेकिन इस गौरवशाली यात्रा के पीछे एक दर्दनाक सच्चाई भी छिपी है, जो विज्ञान की उपलब्धि के साथ-साथ नैतिकता के सवाल भी उठाती है।
लाइका की कहानी 1950 के दशक के सोवियत रूस से शुरू होती है। उस समय अमेरिका और रूस के बीच ‘स्पेस रेस’ यानी अंतरिक्ष प्रतियोगिता चरम पर थी। दोनों देश यह साबित करना चाहते थे कि अंतरिक्ष विज्ञान में कौन आगे है। रूस ने 1957 में ‘स्पुतनिक-1’ नाम का पहला उपग्रह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में भेजा था। इस सफलता के कुछ ही महीनों बाद सोवियत वैज्ञानिकों ने एक और मिशन की योजना बनाई — *स्पुतनिक-2*। इस बार लक्ष्य था, किसी जीवित प्राणी को अंतरिक्ष में भेजना।
इसके लिए वैज्ञानिकों ने किसी बड़े जानवर या प्रशिक्षित जीव के बजाय एक साधारण, सड़कों पर भटकने वाली मादा कुतिया को चुना। कारण साफ था — सड़क के कुत्ते कठिन परिस्थितियों के आदी होते हैं, उन्हें भूख, ठंड और अकेलेपन से जूझना आता है। यही सोचकर मॉस्को की गलियों से एक छोटी, शांत स्वभाव की कुतिया को पकड़ा गया। उसका नाम रखा गया *“लाइका”* — जिसका अर्थ है “भौंकने वाली”।
लाइका का चयन महज़ संयोग नहीं था, बल्कि एक सोच-समझकर लिया गया फैसला था। वैज्ञानिकों ने कई कुत्तों का परीक्षण किया, उनके शरीर की सहनशक्ति, हृदय की गति और तनाव प्रतिक्रिया को मापा गया। अंततः लाइका सबसे उपयुक्त पाई गई। उसे कुछ हफ्तों तक प्रशिक्षण दिया गया — छोटे-छोटे कैप्सूल जैसे पिंजरों में रखा गया, ताकि वह स्पेसकैप्सूल की तंग जगह की आदी हो सके। उसे कृत्रिम कंपनों और तेज आवाज़ों के बीच रखा गया ताकि प्रक्षेपण के दौरान के शोर और झटकों से वह न डरे।
3 नवंबर 1957 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया। उस दिन *स्पुतनिक-2* को कज़ाखस्तान के बैकोनूर कॉस्मोड्रोम से अंतरिक्ष में भेजा गया। रॉकेट के भीतर एक विशेष कैप्सूल था — जिसमें लाइका को रखा गया था। जब रॉकेट अंतरिक्ष में पहुँचा, तो दुनिया ने पहली बार महसूस किया कि पृथ्वी से बाहर किसी जीवित प्राणी ने उड़ान भरी है। लाइका उस समय करोड़ों लोगों की जिज्ञासा और उम्मीदों का केंद्र बन गई।
सोवियत सरकार ने इस मिशन को “मानवता के लिए गौरवपूर्ण कदम” बताया। दुनिया भर के अखबारों ने लाइका की तस्वीरें छापीं — अंतरिक्ष की पहली ‘यात्री’ के रूप में। लेकिन मिशन की सच्चाई उतनी गौरवशाली नहीं थी, जितनी दिखाई गई। उस समय तकनीक इतनी विकसित नहीं थी कि जीवित प्राणी को वापस पृथ्वी पर सुरक्षित लाया जा सके। यानी लाइका को यह मिशन कभी लौटने के लिए नहीं भेजा गया था।
शुरुआती सरकारी बयानों में कहा गया था कि लाइका कई दिनों तक जीवित रही और बाद में ऑक्सीजन की कमी से शांतिपूर्वक मर गई। लेकिन दशकों बाद सामने आई सच्चाई इससे कहीं ज्यादा दर्दनाक थी। 2002 में रूसी वैज्ञानिक दिमित्री मालाशेंकोव ने खुलासा किया कि प्रक्षेपण के कुछ घंटों बाद ही स्पेसकैप्सूल के अंदर तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया था। गर्मी और तनाव के कारण लाइका कुछ ही घंटों में मर गई थी।
लाइका की मौत ने दुनिया भर में पशु-अधिकारों पर बहस छेड़ दी। कई वैज्ञानिकों और पशु-प्रेमियों ने इसे ‘क्रूर प्रयोग’ कहा। लेकिन सोवियत संघ ने इसे अपने वैज्ञानिक गौरव का प्रतीक बनाए रखा। बाद में अमेरिका और अन्य देशों ने भी पशुओं को अंतरिक्ष मिशनों में भेजा — जैसे बंदर, चूहे और खरगोश — लेकिन लाइका हमेशा पहली रही, जिसने मानवता की ओर से यह बलिदान दिया।
हालांकि, समय के साथ वैज्ञानिकों ने लाइका के योगदान को एक ‘स्मारक’ के रूप में स्वीकार किया। 2008 में मॉस्को में उसके सम्मान में एक स्मारक बनाया गया — जिसमें लाइका को एक रॉकेट के ऊपर खड़े दिखाया गया है। यह न केवल विज्ञान की उपलब्धि का प्रतीक है, बल्कि उस मासूम जीव की याद भी है जिसने इंसान की जिज्ञासा के लिए अपनी जान दी।
आज जब अंतरिक्ष विज्ञान चाँद, मंगल और उससे आगे की यात्राओं तक पहुँच चुका है, तब भी लाइका का नाम आदर से लिया जाता है। उसके बलिदान ने वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद की कि जीवित शरीर अंतरिक्ष की स्थिति — जैसे भारहीनता, विकिरण और तापमान — को कैसे झेलता है। यही ज्ञान आगे जाकर *यूरी गागरिन* की ऐतिहासिक मानव उड़ान की नींव बना।

