तकनीक ने बच्चों की दुनिया बदल दी है। कभी जो शामें खेल के मैदानों में बीतती थीं, अब वे मोबाइल की स्क्रीन पर सिमट गई हैं। ऑनलाइन गेम्स, सोशल मीडिया और यूट्यूब ने बचपन के अर्थ को ही नया रूप दे दिया है। लेकिन इस डिजिटल बदलाव के साथ एक नई और गंभीर स्वास्थ्य समस्या भी उभरकर सामने आई है — बच्चों में सुनने की क्षमता का घट जाना। डॉक्टरों की चेतावनी है कि लंबे समय तक हेडफोन और ईयरबड्स का इस्तेमाल, खासकर गेमिंग के दौरान, बच्चों के कानों को स्थायी रूप से नुकसान पहुँचा सकता है। अगर समय रहते सावधानी नहीं बरती गई, तो आने वाले वर्षों में ‘डिजिटल बहरापन’ (Digital Deafness) एक आम बीमारी बन सकती है।
आज का बच्चा सुबह से रात तक स्क्रीन से जुड़ा है। ऑनलाइन क्लासेज़, वीडियो चैट, गेमिंग और संगीत — हर गतिविधि में हेडफोन या ईयरबड्स का इस्तेमाल आम हो गया है। पहले जहाँ बच्चे खेलने के लिए बाहर निकलते थे, अब वे अपने कमरे में बैठकर आभासी खेलों में डूबे रहते हैं। आधुनिक गेम्स में साउंड इफेक्ट्स और बैकग्राउंड म्यूज़िक इतना तेज़ होता है कि बच्चे इसे अधिक रोमांचक बनाने के लिए वॉल्यूम बढ़ा देते हैं। कई बार तो वॉल्यूम 90 डेसिबल से ऊपर पहुँच जाता है, जो कानों के लिए खतरनाक स्तर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन 85 डेसिबल से अधिक शोर 8 घंटे तक सुनता है, तो उसकी सुनने की क्षमता पर स्थायी प्रभाव पड़ सकता है।
भारत में यह खतरा तेजी से बढ़ रहा है। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और लखनऊ जैसे शहरों में ईएनटी विशेषज्ञों के पास ऐसे बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिन्हें “सुनाई कम देना”, “कानों में गूंज” या “कानों में दर्द” जैसी शिकायतें हैं। डॉक्टरों का कहना है कि यह समस्या अब सिर्फ किशोरों में नहीं, बल्कि 8-10 वर्ष के बच्चों में भी दिखने लगी है। स्कूलों में ऑनलाइन क्लासेज़ के दौरान लंबे समय तक हेडफोन के इस्तेमाल ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।
कान का अंदरूनी भाग बहुत नाजुक होता है। इसमें ‘हेयर सेल्स’ (Hair Cells) नामक सूक्ष्म कोशिकाएँ होती हैं जो ध्वनि को विद्युत संकेतों में बदलती हैं। जब हम बहुत तेज़ आवाज़ लंबे समय तक सुनते हैं, तो ये कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और दोबारा बन नहीं पातीं। यही वजह है कि एक बार सुनने की क्षमता घट जाने के बाद उसे वापस लाना लगभग असंभव होता है। हेडफोन से निकलने वाली लगातार तीव्र ध्वनि इन कोशिकाओं को धीरे-धीरे नष्ट कर देती है।
गेमिंग से जुड़ी एक और समस्या है — लगातार ध्यान केंद्रित करने की मजबूरी। गेम्स में लगातार तेज़ साउंड, हथियारों की आवाज़, धमाके और संगीत के मिश्रण से बच्चे मानसिक तनाव में रहते हैं। यह तनाव ‘श्रवण थकान’ (Auditory Fatigue) को बढ़ाता है, यानी कानों की नसें अस्थायी रूप से कमजोर हो जाती हैं। यदि यह स्थिति बार-बार होती रहे, तो यह स्थायी बहरेपन का रूप ले सकती है।
समस्या केवल आवाज़ के स्तर तक सीमित नहीं है। हेडफोन या ईयरबड्स का लंबे समय तक इस्तेमाल कानों के भीतर हवा के प्रवाह को रोक देता है, जिससे कानों में संक्रमण और ‘ओटिटिस मीडिया’ जैसी बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं। बच्चे कई बार गंदे ईयरबड्स का इस्तेमाल करते हैं, या दूसरों के साथ साझा करते हैं, जिससे बैक्टीरियल संक्रमण का खतरा और बढ़ जाता है।
गेमिंग कंपनियों ने अपने प्रोडक्ट्स को इतना आकर्षक बना दिया है कि बच्चे घंटों तक खेलों में डूबे रहते हैं। ‘बैटलग्राउंड’, ‘फ्री फायर’, ‘कॉल ऑफ ड्यूटी’ या ‘फोर्टनाइट’ जैसे गेम्स में आवाज़ का माहौल इतना तीव्र होता है कि खिलाड़ी खुद को युद्ध के मैदान में महसूस करते हैं। इस उत्तेजना को बनाए रखने के लिए वे वॉल्यूम और बढ़ा देते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर कोई बच्चा रोजाना 2 से 3 घंटे तक हेडफोन लगाकर खेलता है, तो अगले पाँच वर्षों में उसकी सुनने की क्षमता 20 से 30 प्रतिशत तक कम हो सकती है।
इसके अलावा, इस आदत का प्रभाव केवल सुनने की शक्ति पर नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक जीवन पर भी पड़ता है। लगातार हेडफोन लगाने से बच्चे सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ने लगते हैं। वे परिवार से बातचीत कम करते हैं, बाहरी आवाज़ों पर ध्यान नहीं देते, और धीरे-धीरे एकांतप्रिय हो जाते हैं। इस स्थिति को “हेडफोन आइसोलेशन सिंड्रोम” कहा जाता है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि यदि स्थिति ऐसी ही रही तो 2050 तक दुनिया की 70 करोड़ से अधिक आबादी किसी न किसी स्तर की श्रवण समस्या से ग्रसित होगी, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा युवाओं और किशोरों का होगा। भारत में यह संकट और गहरा है क्योंकि यहाँ बच्चों में डिजिटल उपकरणों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन इसके प्रति जागरूकता अभी भी बहुत कम है।
कई माता-पिता यह सोचते हैं कि हेडफोन से बच्चा बाहर की आवाज़ों से विचलित नहीं होगा, लेकिन यही सुविधा अब खतरे का कारण बन रही है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि बच्चों को 60/60 नियम का पालन करना चाहिए — यानी वॉल्यूम कुल क्षमता के 60 प्रतिशत से ज़्यादा न हो और लगातार 60 मिनट से अधिक हेडफोन का उपयोग न किया जाए। हर घंटे के बाद कम से कम 10 मिनट का ‘ईयर ब्रेक’ देना ज़रूरी है ताकि कानों को आराम मिल सके।
डॉक्टर यह भी सलाह देते हैं कि ‘ओवर-ईयर हेडफोन’ ईयरबड्स से बेहतर होते हैं क्योंकि वे कान के अंदर सीधी ध्वनि नहीं भेजते। साथ ही, ‘नॉइज़ कैंसिलिंग हेडफोन’ का प्रयोग किया जा सकता है ताकि शोर को कम रखते हुए ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों को “साउंड हाइजीन” के बारे में सिखाया जाए — यानी ध्वनि का सही और सुरक्षित उपयोग कैसे किया जाए।
सरकार और शिक्षा संस्थानों को भी इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। स्कूलों में बच्चों को डिजिटल उपकरणों के सुरक्षित उपयोग पर विशेष कक्षाएँ आयोजित की जानी चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय को ‘नेशनल ईयर केयर प्रोग्राम’ को स्कूलों तक पहुँचाना होगा ताकि प्रारंभिक अवस्था में ही श्रवण समस्याओं का पता लगाया जा सके। गेमिंग प्लेटफॉर्म्स को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। जैसे शराब और तंबाकू के विज्ञापनों पर चेतावनी होती है, वैसे ही तेज़ आवाज़ और लंबे गेमिंग समय के खतरे की चेतावनी गेम्स में भी शामिल की जानी चाहिए।
यह भी जरूरी है कि माता-पिता तकनीक को पूरी तरह रोकने के बजाय उसका संतुलित उपयोग सिखाएँ। बच्चों के स्क्रीन टाइम को नियंत्रित करना, गेमिंग समय तय करना और पारिवारिक गतिविधियों में उन्हें शामिल करना इसके व्यावहारिक उपाय हैं। सप्ताह में कुछ घंटे “नो गैजेट डे” जैसे प्रयोग घरों में किए जा सकते हैं ताकि बच्चे तकनीक से थोड़ी दूरी बनाना सीखें।
समाज के लिए यह समझना आवश्यक है कि सुनने की क्षमता केवल एक इंद्रिय नहीं, बल्कि संचार, संवेदना और सीखने का मूल साधन है। अगर बच्चे सुनना बंद कर देंगे, तो वे केवल ध्वनियाँ नहीं, बल्कि संवाद की दुनिया से भी दूर हो जाएँगे। शिक्षा, सामाजिक जुड़ाव और आत्मविश्वास — सब पर इसका असर पड़ेगा।
आज यह संकट भले ही धीरे-धीरे बढ़ रहा हो, लेकिन आने वाले वर्षों में यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा का रूप ले सकता है। जिस तरह प्रदूषण ने हमारे फेफड़ों को कमजोर किया, उसी तरह अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण अब बच्चों के कानों को कमजोर कर रहा है। इसे रोकना हमारे ही हाथ में है — थोड़ी सावधानी, थोड़ी जागरूकता और थोड़ी जिम्मेदारी से हम आने वाली पीढ़ी के सुनने का भविष्य बचा सकते हैं।
**निष्कर्ष**
हेडफोन और गेमिंग ने बच्चों को तकनीक से जोड़ा है, लेकिन यह जुड़ाव अब खतरे की रेखा पार कर रहा है। तेज़ आवाज़ और लंबे उपयोग से बच्चों में सुनने की क्षमता का कम होना एक वास्तविक और गंभीर समस्या बन चुकी है। इसे केवल चिकित्सा या तकनीकी उपायों से नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता और अनुशासन से ही रोका जा सकता है।
माता-पिता, शिक्षक और नीति निर्माता — सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि तकनीक बच्चों के विकास का साधन बने, विनाश का नहीं। बच्चों को सिखाना होगा कि खेलना जरूरी है, लेकिन कानों की सुरक्षा उससे भी ज्यादा जरूरी है। हेडफोन मनोरंजन का साधन हैं, लेकिन अगर सावधानी न रखी जाए तो वे मौन का कारण भी बन सकते हैं। और जब एक पूरा बचपन ‘सुनने’ की क्षमता खो देता है, तो वह केवल ध्वनियाँ नहीं, बल्कि जीवन की मधुरता भी खो देता है। यही समय है — हेडफोन का नहीं, चेतावनी का।
