स्कूल छोड़ती बेटियाँ: संसाधनों की कमी या सामाजिक चूक?

SANDEEP SAHU
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भारत की प्रगति का रास्ता शिक्षा से होकर गुजरता है। लेकिन इस रास्ते में जब समाज की आधी आबादी यानी बेटियाँ पीछे छूटने लगती हैं, तो सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर गलती कहाँ हो रही है। सरकारी योजनाएँ, नीतियाँ और घोषणाएँ तो खूब हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत बताती है कि आज भी लाखों बेटियाँ स्कूल नहीं जा पातीं या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। यह स्थिति किसी एक राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश की गहरी सामाजिक और संरचनात्मक समस्या बन चुकी है। सवाल यह नहीं कि बेटियाँ स्कूल क्यों नहीं जातीं, बल्कि यह है कि क्या यह संसाधनों की कमी का नतीजा है या समाज की मानसिकता की चूक का प्रमाण?


भारत ने पिछले दो दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए ‘सर्व शिक्षा अभियान’ से लेकर ‘राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाएँ शुरू की गईं। सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना (Mid-Day Meal Scheme) के तहत बच्चों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया गया ताकि परिवारों को बच्चों को स्कूल भेजने की प्रेरणा मिले। लेकिन इन योजनाओं के बावजूद, आज भी ग्रामीण भारत में शिक्षा का यह पुल बेटियों के लिए अधूरा रह जाता है।


ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति सबसे अधिक चिंताजनक है। यूनिसेफ और यूनेस्को की संयुक्त रिपोर्ट बताती है कि भारत में 11 से 16 वर्ष की आयु की लगभग 40 प्रतिशत लड़कियाँ या तो स्कूल नहीं जातीं या बीच में पढ़ाई छोड़ देती हैं। इसका कारण केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। जब घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होती है, तो परिवार अक्सर यह सोचकर बेटियों की शिक्षा पर निवेश नहीं करता कि उनका भविष्य विवाह और घर-परिवार तक सीमित है। दूसरी ओर, लड़कों की शिक्षा को “निवेश” और बेटियों की शिक्षा को “खर्च” मानने की मानसिकता अब भी गहराई तक बैठी हुई है।


स्कूल छोड़ने के पीछे सबसे प्रमुख कारणों में एक है — आधारभूत सुविधाओं की कमी। देश के कई गाँवों में आज भी ऐसे स्कूल हैं जहाँ शौचालय नहीं हैं, या यदि हैं तो उनका रखरखाव नहीं होता। किशोरावस्था में पहुँच चुकी लड़कियाँ ऐसे हालात में स्कूल जाना बंद कर देती हैं क्योंकि उन्हें गरिमा और सुरक्षा की चिंता सताती है। ग्रामीण भारत में यह दृश्य आम है कि जब कोई लड़की कक्षा 6 या 7 तक पहुँचती है, तो वह अचानक स्कूल जाना छोड़ देती है। कारण — स्कूल बहुत दूर है, रास्ता सुरक्षित नहीं है, या वहाँ उसके लिए अलग शौचालय नहीं है। यह छोटी दिखने वाली बातें उनके जीवन के बड़े फैसलों को प्रभावित करती हैं।


दूसरा बड़ा कारण सामाजिक और सांस्कृतिक सोच है। भारतीय समाज में अब भी लड़कियों की भूमिका घर और परिवार तक सीमित मान ली गई है। कई समुदायों में यह धारणा गहराई से जमी है कि “लड़की को ज्यादा पढ़ाने से उसका विवाह मुश्किल हो जाता है।” यह सोच न केवल उनके अवसरों को सीमित करती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने से भी रोकती है। बाल विवाह अब भी कई हिस्सों में आम बात है, और जब किसी लड़की की शादी किशोरावस्था में ही कर दी जाती है, तो उसकी शिक्षा स्वतः समाप्त हो जाती है।


एक और गंभीर पहलू है — बाल श्रम। ग्रामीण और शहरी गरीब परिवारों में बेटियाँ अक्सर घर के कामकाज, छोटे भाई-बहनों की देखभाल और खेत या मजदूरी में सहयोग करने के लिए स्कूल छोड़ देती हैं। महामारी के बाद तो यह समस्या और गहरी हो गई है। लॉकडाउन के दौरान लाखों परिवार आर्थिक संकट में आ गए, और इसका सबसे बड़ा असर बेटियों की पढ़ाई पर पड़ा। बहुत सी लड़कियाँ जिन्होंने ऑनलाइन शिक्षा के साधन न होने के कारण पढ़ाई छोड़ी, वे दोबारा स्कूल नहीं लौटीं।


संसाधनों की कमी के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता पर भी सवाल हैं। कई स्कूलों में शिक्षकों की कमी, घटिया आधारभूत ढांचा और असमान पाठ्यक्रम ने भी बच्चों, खासकर लड़कियों का मन पढ़ाई से उचाट कर दिया है। जब स्कूल में सीखने का वातावरण नहीं होता, तो परिवार भी उसे “बेकार की पढ़ाई” मान लेता है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों में नामांकन तो बढ़ जाता है, लेकिन ड्रॉपआउट दर कम नहीं होती।


इसके बावजूद यह कहना अधूरा होगा कि केवल संसाधनों की कमी ही इसका कारण है। असली समस्या सामाजिक मानसिकता में है। समाज में अब भी यह धारणा बनी हुई है कि “लड़की की असली जगह रसोई है, न कि कक्षा।” कई बार माता-पिता बेटियों को स्कूल भेजते भी हैं, लेकिन जैसे ही वे किशोरावस्था में पहुँचती हैं, उन पर तमाम पाबंदियाँ लगा दी जाती हैं — बाहर मत जाओ, दोस्तों से बात मत करो, पढ़ाई अब ज़्यादा नहीं चाहिए। इस तरह उनका आत्मविश्वास धीरे-धीरे टूटने लगता है और वे शिक्षा से कट जाती हैं।


हालाँकि, यह भी सच है कि बदलाव की लहर धीरे-धीरे उठ रही है। कई राज्यों में सरकारों और सामाजिक संगठनों ने मिलकर बेटियों को शिक्षा से जोड़ने के लिए अभिनव प्रयास किए हैं। बिहार में “साइकिल योजना” और “पोशाक योजना” ने लाखों बालिकाओं को स्कूल पहुँचाने में मदद की। मध्यप्रदेश में “लाड़ली लक्ष्मी” जैसी योजनाओं ने बेटियों के जन्म और शिक्षा के बीच सीधा संबंध स्थापित किया। राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में भी अब बालिकाओं की शिक्षा दर में उल्लेखनीय सुधार देखा जा रहा है। लेकिन इन योजनाओं की सफलता तभी स्थायी होगी जब समाज की मानसिकता भी समान रूप से बदलेगी।


शिक्षा केवल पढ़ने-लिखने का साधन नहीं, बल्कि समान अवसर का अधिकार है। जब एक लड़की पढ़ती है, तो वह सिर्फ खुद का नहीं, बल्कि अपने पूरे परिवार का भविष्य बदलती है। एक शिक्षित महिला आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करती है, परिवार में स्वास्थ्य, स्वच्छता और आर्थिक समझ लाती है। इसीलिए कहा जाता है — “यदि आप किसी पुरुष को शिक्षित करते हैं, तो आप एक व्यक्ति को शिक्षित करते हैं; लेकिन यदि आप किसी महिला को शिक्षित करते हैं, तो आप एक परिवार को शिक्षित करते हैं।”


समस्या का समाधान केवल सरकारी योजनाओं से नहीं होगा। इसके लिए सामाजिक चेतना, सामुदायिक सहयोग और पारिवारिक समर्थन की जरूरत है। गाँवों और कस्बों में स्थानीय स्तर पर महिला समूहों, पंचायतों और शिक्षकों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बेटी सिर्फ लिंग के कारण शिक्षा से वंचित न रहे। स्कूलों को सुरक्षित, संवेदनशील और प्रेरणादायक बनाना होगा। शिक्षकों को बेटियों के साथ संवाद बढ़ाने और अभिभावकों को जागरूक करने की जिम्मेदारी उठानी होगी।


एक और जरूरी पहल यह है कि शिक्षा को केवल डिग्री या रोजगार से जोड़कर न देखा जाए। शिक्षा का मतलब है आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और सोचने की क्षमता का विकास। अगर समाज यह समझ ले कि बेटी की शिक्षा परिवार की गरिमा है, तो बहुत कुछ बदल सकता है।


टेक्नोलॉजी भी इस दिशा में बड़ी भूमिका निभा सकती है। आज जब डिजिटल शिक्षा तेजी से आगे बढ़ रही है, तो इसका लाभ ग्रामीण क्षेत्रों की बेटियों तक पहुँचाना आवश्यक है। सस्ती इंटरनेट सुविधा, स्मार्टफोन की उपलब्धता और स्थानीय भाषा में डिजिटल कंटेंट बनाकर हम उन्हें शिक्षा से जोड़ सकते हैं। इस दिशा में सरकार और निजी संगठनों को मिलकर काम करना होगा।


मीडिया और फिल्म जगत भी सामाजिक बदलाव के वाहक बन सकते हैं। फिल्मों, धारावाहिकों और विज्ञापनों के माध्यम से यह संदेश देना चाहिए कि पढ़ी-लिखी बेटी ही मजबूत समाज की नींव है। समाज जब इस संदेश को आत्मसात करेगा, तभी असली बदलाव दिखाई देगा।


यदि भारत को आत्मनिर्भर और प्रगतिशील बनना है, तो उसे अपनी बेटियों को शिक्षित करना ही होगा। कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो सकता, जब तक उसकी आधी आबादी अंधेरे में रहे। आज जब दुनिया अंतरिक्ष में अपनी जगह बना रही है, तो हमारे गाँवों में कोई भी बेटी सिर्फ इसलिए स्कूल न छोड़े कि रास्ता लंबा है या सोच संकीर्ण।


यह सवाल अब केवल शिक्षा का नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का है। हमें तय करना होगा कि क्या हम बेटियों को अवसर देंगे या उन्हें परंपराओं की बेड़ियों में बाँध देंगे।

निष्कर्ष

स्कूल छोड़ती बेटियाँ हमारे विकास मॉडल पर एक गहरी चोट हैं। यह केवल संसाधनों की कमी की बात नहीं, बल्कि हमारी सोच की परीक्षा है। सरकारें योजनाएँ बना सकती हैं, लेकिन समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। जब तक परिवार बेटियों की शिक्षा को समान अधिकार नहीं मानेगा, तब तक कोई नीति असरदार नहीं होगी।


समाधान स्पष्ट है — शिक्षा को सामाजिक आंदोलन बनाना होगा। हर गाँव, हर मोहल्ले में यह संकल्प लेना होगा कि कोई भी बेटी पढ़ाई से वंचित नहीं रहेगी। क्योंकि जब एक बेटी स्कूल छोड़ती है, तो केवल एक सपना नहीं टूटता, बल्कि देश की प्रगति का एक पन्ना अधूरा रह जाता है। और जब हर बेटी स्कूल जाएगी, तभी भारत सचमुच “शिक्षित, सशक्त और समान” कहलाने का अधिकार पाएगा।


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